स्कूल से मस्जिद तक
मै हिन्दू हूँ और जैसा की हम जानते है कि हमारा पूजा स्थान मंदिर होता है | मेरे घर से थोड़ी दूर पर एक मस्जिद था वहा एक हाफीजी कुछ लोगों को उर्दू भी पढ़ाते मेरे चाचा चाहते थे कि मै उर्दू सीखू फिर क्या था हाफीजी से बात कि और हाफीजी ने मुझे मस्जिद आने को कहा | मै हिन्दू था इसलिए मुझे बाहर बैठकर पढना पड़ता था बाकि सभी लोग मस्जिद के अंदर पढ़ते थे |
उस समय एक महीने कि फीस सिर्फ एक रूपये ही थी |
मै सिर्फ गर्मी कि छुट्टी में ही मस्जिद जाता था उर्दू padhne पर ज्यादा रूचि न होने के कारन सिर्फ एक महीने के लिए ही गया परन्तु चाचाजी पीछे पड़े हुए थे उर्दू सिखाने के लिए |
हमारे घर के पीछे एक साधू महाराज रहते थे वो भी थोड़ी थोड़ी उर्दू जानते थे तो चाचजी मुझे वही भेजने लगे |
साधू महाराज मुझे कभी कभी चाय बना के भी पिलाते थे पर वो देख रहे थे कि मुझे ज्यादा रूचि नहीं है तो वो भी टाइम पास के लिए बुलाते थे किस्से कहानी सुना करके वापस कर देते थे |
फिर कुछ दिन बाद चुटी ख़त्म उर्दू कि पढाई ख़त्म | पर आने जाने में मुझे उर्दू अक्षर याद हो गए जो इस तरह से है
अलिफ बे पे ते टे जीम छे हे खे दाल जाल रे अड़े सीन बड़ीसीन स्वाद द्वाद तो जो अं गईं फे काफ लम मीम नून वाव हे दोचास्मी हे हमजा छोटी ये बड़ी ये .
अगर मै कोई लाइन भूल गया हूँ तो कृप्या लिख दे कमेन्ट में .